छात्र-छात्राओं में बढ़ती हुई आत्मघात की प्रवृत्ति सामयिक चिंता का विषय है। विगत कुछ वर्षों में विद्यार्थियों द्वारा आत्मघात की संख्या में क्...
छात्र-छात्राओं में बढ़ती हुई आत्मघात की प्रवृत्ति सामयिक चिंता का विषय है। विगत कुछ वर्षों में विद्यार्थियों द्वारा आत्मघात की संख्या में क्रमशः हो रही वृद्धि निश्चित ही मानवीय समाज के लिए अलार्मिंग मानी जानी चाहिए। आत्मघात की बढ़ती प्रवृत्ति के पीछे कोई एक कारण उत्तरदाई नहीं है। विभिन्न तरह की अवसाद की स्थिति के चलते आत्मघातों की संख्या के आधार पर उनके निराकरण के प्रयास बुद्धिजीवी वर्ग को करने होंगे। प्रतिदिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली खबरों के आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मघात के कारणों में व्यक्तिगत , पारिवारिक , शैक्षणिक , सामाजिक , शासकीय ,नीतिगत तथा आर्थिक कारण अपना नकारात्मक प्रभाव दिखा रहे हैं। पृथक - पृथक कारणों से स्वयं को माता - पिता अथवा वर्तमान समय की अपेक्षाओं के अनुसार सफल न होने के भय से कुंठा तथा हीन भावना अंततोगत्वा विद्यार्थियों के दिलों - दिमाग में अवसाद के रूप में गहरी पैठ बना रही हैं। खुद पर विश्वास न रखने के कारण अंततः मानवीय समाज को अपने बेटे - बेटियों को खोना पड़ रहा है। अभी छत्तीसगढ़ बोर्ड परीक्षा के परिणाम घोषित होने के उपरांत आत्मघात की कुछ घटनाओं ने मुझे झकझोर दिया है। मैने अपने जीवन के लगभग चार दशक अध्यापन कार्य में गुजारे हैं । इस तरह की घटनाएं पहले नगण्य थीं , किंतु अब दिल - दहलाने तक पहुंच गई हैं।
विद्यार्थियों में बढ़ रही आत्महत्या की घटनाओं के पीछे मैंने जो अनुभव किया उसमें सबसे पहले पढ़ाई का लक्ष्य पूरा न हो पाने के कारण जागृत असफलता का भाव , अपने सह - पाठियों से प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाना , मुझे दिखाई पड़ रहा है। साथ ही किसी विषय विशेष में स्वयं को कमजोर पाने पर अवचेतन में निर्मित भय और हीनता का भाव दुःखद परिणाम तक ले जा रहा है। हम यह जानते हैं कि विद्यार्थियों का मन अत्यंत कोमल होता है । साथ ही संवेदनशीलता भी अत्यधिक होती है । उनके किसी कार्य के प्रति , प्रतिकूल टिप्पणी या डांट - फटकार से उत्पन्न तनाव उन्हें अपराध बोध की जंजीरों में जकड़ लेता है । इस संदर्भ में एक कारक इस रूप में भी सामने आता रहा है - कि समृद्ध परिवार द्वारा अपने बच्चों को जरूरत से ज्यादा सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। वहीं आर्थिक रूप से कमजोर विद्यार्थी अभावों में रहते हैं। इन दोनो ही स्थितियों में उनका शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ विकास नहीं हो पा रहा है। इसी कारण वैचारिक असंतुलन की स्थिति निर्मित हो रही है । दूसरी बड़ी बात यह भी है कि विद्यार्थी अपनी क्षमताओं का आंकलन नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि उनके अंदर स्व-निर्णय की क्षमता का विकास नहीं हो पा रहा है । यह भी देखने में आ रहा है कि विद्यार्थियों में बिना अपेक्षित प्रयास , परिश्रम तथा योग्यता के शीघ्र ही सफल होने की महत्वाकांक्षा , सफलता न मिलने पर नैराश्य की स्थिति पैदा कर रही है।
वर्तमान के भौतिकवादी परिवेश में विकसित नकारात्मक सोच के कारण कठिनाई एवं समस्याओं का सामना करने का साहस भी विद्यार्थियों में घर कर गया है । इसके अलावा धैर्य तथा सहनशीलता की कमी के कारण परिस्थितियों से सामंजस न बैठा पाना भी आत्मघाती हो रहा है । सूचना एवं संचार क्रांति के इस युग में युवा पीढ़ी की सोशल मीडिया में अत्यधिक सक्रियता और इंटरनेट आदि के विवेक हीन प्रयोग के कारण अपेक्षित गंभीरता का अभाव परिलक्षित है । एक सच्चाई जिसे लिखना मेरे लिए उचित प्रतीत नहीं हो रहा है , किंतु किशोरावस्था को सचेत करने कहना पड़ रहा है कि युवा विद्यार्थियों में अध्ययन के अतिरिक्त प्रणय- प्रसंगों में आबद्धता इस कदर भूत बनकर सवार है कि उन्हें इसके अलावा सब बेकार नजर आता है । प्रणय- प्रसंग में असफल हो जाने पर उद्वेलित होकर उनके द्वारा आत्मघाती कदम उठाए जा रहे हैं। जहां तक मैं समझता हूं इस मामले में " गुड पेरेंटिंग " अच्छे परिणाम दे सकती है । वर्तमान भाग - दौड़ वाली जिंदगी में माता - पिता दोनो सेवारत होने के कारण घर पर बच्चों के साथ समय नही बिता पा रहे हैं । उनके अंतर्मन में चल रही द्वंदता को दूर करने की पालकों की कमी भी इसके लिए जवाबदार ठहराई जा सकती है । इसे नकारा नहीं जा सकता है कि हमारी सामाजिक संरचना में परिवार एक महत्वपूर्ण इकाई है । संयुक्त परिवारों का विघटन तथा एकल परिवारों का प्रचलन और इससे उत्पन्न वातावरण का प्रभाव बच्चों पर नकारात्मक रूप से असर दिखा रहा है। मैं स्पष्ट रूप से कह सकता हूं कि माता - पिता एवं संतान के बीच संवाद हीनता के कारण बच्चा अपने मन की बात या समस्या अन्य के साथ साझा नहीं कर पा रहा है। यह एक बड़ा कारण है जो बच्चों को गलत मार्ग में जाने विवश कर रहा हैं।
बच्चों में बढ़ रहे आत्मघाती विचार के लिए काफी हद तक पालक जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। बच्चों की रुचि एवं क्षमता के अनुरूप कैरियर चुनने की स्वतंत्रता न मिलना भी अहम कारण है। परिजनों द्वारा अपने नजरिए से पाठ्यक्रम - विषय का चयन किया जा रहा है । रुचि के विपरीत अभिभावकों के दबाव के कारण बच्चों में अंतर्निहित प्रतिभा को प्रकट करने का असर समाप्त किया जा रहा है। यही कारण है कि दबाव पूर्वक लिए गए विषय में असफल होने पर उनके अंदर कुंठित भावना पैदा हो रही है। साथ ही बच्चों की दिनचर्या पर अभिभावकों का ध्यान लगभग शून्य है। अव्यवस्थित दिनचर्या बच्चों के प्रदर्शन को प्रभावित कर रही है। एक और कारण जो मुझे नजर आता है , वह है पालकों द्वारा बच्चे की इच्छा के बगैर अध्ययन - कोचिंग हेतु घर से दूर भेज देना। इस स्थिति के चलते बच्चों में " होम सिकनेस " की समस्या पैदा हो रही है। वे माता - पिता से डर के कारण अपने मन की बात उनसे नहीं कह पाते हैं , और न ही वापस आ पाते हैं। इसका नकारात्मक परिणाम अकेलेपन के कारण अवसाद के रूप में सामने आ रहा है। आज के अभिभावक के मन में यह विचार स्थाई रूप से बैठ चुका है कि उन्होंने अपने जीवन में जो प्राप्त नहीं कर पाया , वे अपने उन सपनों को बच्चों से पूरा कराना चाहते हैं। इसी तरह की थोपी गई इच्छा के कारण बच्चे तनाव में आकर कुंठाग्रस्त हो रहे हैं।
आत्मघाती निर्णय की जब हम बात कर रहे हैं तब राजस्थान के कोटा शहर की बात न आए , यह नहीं हो सकता । मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के उद्देश्य से कोटा में कोचिंग करने वाले प्रतिभावनों की बात करूं तो पैरों के नीचे धरती हिलती नजर आती है। वर्ष 2023 के शुरुआती महीनों में ही कोटा में लगभग 20 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। हम यदि विश्व स्तर के मामलों को छोड़कर केवल भारतवर्ष की बात करें तो एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि 2021 में भारतवर्ष में 13 हजार से अधिक बच्चों ने मौत को गले लगा लिया। मैं यदि इन आंकड़ों के आधार पर प्रतिदिन की मौत का औसत आंकलन करूं तो यह 35 छात्र के रूप में प्राप्त होता है , अर्थात प्रतिदिन एक से अधिक बच्चे ने हमें विचलित किया है। माता - पिता की थोपी गई इच्छाशक्ति के चलते शायद हमें जल्द ही इन आत्मघाती विचारों से मुक्ति नहीं मिलने वाली है।
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